Wednesday, July 27, 2011

फिल्म समीक्षा- आई ऍम कलाम


अरुण तिवारी

वर्ष 2010 में प्रदर्शित फीचर फिल्म आई एम कलाम एक ऐसे बच्चेछोटूज् की कहानी पर आधारित है जो राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के भाषण से प्रेरित होकर भाग्य पर भरोसा करने की बजाय किसी भी कीमत पर बड़ा आदमी बनने सपने देखने लगता है।
युवा निर्देशक नीला मदहाब पंडा ने इस फिल्म में दो बच्चों, छोटू (हर्ष मयार) और रणविजय (हुसेन साद) पर आधारित है। छोटू अपने गांव में पड़े भीषण अकाल के कारण शहर जाता है और अपने मामा भाटी (गुलशन ग्रोवर) के ढाबे पर काम करने लगता है। रोजमर्रा की जिंदगी में सीखते रहने की धुन छोटू की तरफ लोगों का ध्यान बरबस खींच लेती है। टाई जसी साधारण चीज को भी पंडा ने इतने मार्मिक ढंग से पेश किया है कि टाई फिल्म की मुख्य कहानी से जुड़ जाती है। जहां एक तरफ रणविजय को सभी तरह की सुविधाएं हैं लेकिन उन सुविधाओं के बीच वह अकेला महसूस करता है, वहीं दूसरी तरफ छोटू एक अभावग्रस्त अवस्था में भी हमेशा प्रसन्न रहता है। दोनों के जीवन को फिल्म में समानांतर ढंग से चलते दिखाया गया है। दोनों एक दूसरे के दोस्त हैं। रणविजय को छोटू गरीबी प्रभावित नहीं करती और ही छोटू को रणविजय की अमीरी। फिल्म में नाटकीय मोड़ आते हैं, लेकिन छोटू  जसे राहुल सांकृत्यायन की उनमुक्तता लिए  अपने सीखने और घूमने के उद्देश्य पर अटल रहता है। फिल्म के आखिर में दोनों बच्चों को साथ में स्कूल जाते दिखाया गया है।
फिल्म में राजस्थानी संगीत का जादू हर वक्त दिखायी देता है। कई बार राजस्थानी लोकनृत्य और संगीत अपना रंग बिखेरते हैं। राजस्थानी संस्कृति को फिल्म में बखूबी पेश किया गया है। राजस्थान में राजपूतों को दर्जा सबसे ऊपर रखा जाता है, यह फिल्म में भी दिखाया गया है। राजस्थान टूरिस्टों का गढ़ बना रहता है, यह भी फिल्म का हिस्सा है।

कई सारे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली यह फिल्म बहुत बड़ी संख्या में दर्शकों तक नहीं पहुंच सकी। क्योंकि यह बहुत बड़े बजट की फिल्म नहीं थी। इस तरह का सिनेमा कई बार अपने छोटे बजट के कारण अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में तो पहुंच जाता है और बहुत वाहवाही बटोरता है। लेकिन अगर सिनेमा आम दर्शकों तक ही पहुंच सके तो उसकी उपयोगिता का कैनवस बहुत ही सीमित हो जाता है। इस तरह के सिनेमा, जिसमें समानांतर सिनेमा और चालू सिनेमा दोनों का समावेश है, को आम दर्शकों तक पहुंचना बहुत जरूरी है। नये सिनेमा को नये तरह का ट्रीटमेंट चाहिए जो युवा निर्देशक दे भी रहे हैं। भारतीय परिदृश्य में सिनेमा को लेकर अथाह संभावनाएं हैं। ऐसा नहीं है कि इस तरह की सारी फिल्में ऑफबीट ही होती हैं। पिछले कुछ वर्षो में ऐसी ढेर सारी फिल्में बनी हैं जो दर्शकों के मनोरंजन को ही ध्यान में नहीं रखती बल्कि सिनेमाई महत्व के साथ भी पूरी तरह से न्याय करती हैं। जसे- उड़ान, शौर्य, डोर, यहां, धूप, सात खून माफ, ये साली जिंदगी, ब्लू आरेंजेज आदि फिल्मों को इसी कोटि में रखा जा सकता है। अगर सिनेमा के महत्व को आम जीवन से जोड़ना है तो कहानियों को आम आदमी से जोड़ना होगा। नायक को अभिनेता बनाना होगा।






Sunday, July 3, 2011

फिर एंग्री होने लगे हीरो...!


हाल ही में अपनी फिल्म बुढ्ढा होगा तेरा बाप के प्रचार कार्यक्रम के दौरान अमिताभ बच्चन ने कहा किजो काम आप 25 की उम्र में करते हैं वही काम 70 की उम्र में करना चुनौतीपूर्ण होता है। चाहे वह गाना हो, एक्शन हो या फिर डांस।ज् जवानी में किये गये काम चुनौतीपूर्ण हैं, यह जानते हुए भी अमिताभ बच्चन यह कहते हैं किहम जहां खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है।ज् इसके साथ ही अमिताभ बच्चन अपनी नयी फिल्म में अपने  पुराने और लोकप्रिय एंग्री यंग मैन को दोहराने की कोशिश में उतरे हैं। फिल्म बुढ्ढा होगा तेरा बाप के रिलीज होने से पहले ही इसकी चर्चा शुरू हो चुकी थी कि अभिताभ बच्चन का पर्दे का पुनर्अवतार होने वाला है और वे अपने लोकप्रिय किरदार को दोहराने वाले हैं। यह अलग बात है कि बच्चन की इस फिल्म को डेली वेली के मुकाबले कम रेटिंग मिल रही है। फिर भी अमिताभ बच्चन के प्रशंसकों के लिए बुढ्ढा होगा तेरा बाप एक बेहतरीन मसाला फिल्म है, जिसमें उनकी तीन दशक पुरानी छवि को जबरदस्त तरीके से दोहराया गया है। वास्तव में यह फिल्म ऐसा लगता है कि खास तौर से अमिताभ बच्चन के लिए ही रची-बुनी गयी है। एक 68 साल का बुढ्ढा कैसे इतनी ऊर्जा से भरपूर है यह फिल्म में बरबस ही झलकता है।
एक चीज जो गौर करने लायक है वह यह कि एंग्री यंग मैन की छवि को दोहराने वाले अकेले अमिताभ बच्चन ही नहीं हैं। आज कल अगर अमिताभ बच्चन के अलावा भी कई बड़े एक्टर सिक्स पैक ऐब्स और माचो मैन की ऊर्जा के साथ उतर रहे हैं। अजय देवगन सिंहम में सिक्स पैक ऐब्स और लंबी झुकी हुई मूछों के साथ दमदार रोल में अवतरित हो रहे हैं तो जॉन अब्राहम फोर्स में ऐट पैक ऐब्स में जलवे बिखेरने वाले हैं। शाहरुख खान का कहना है कि उनकी आने वाली फिल्म रा वन और डॉन-2 मर्दाना छवि वाली (माचो) फिल्में हैं। वे कहते हैं कि वे ऐसी फिल्में इसलिए कर रहे हैं कि क्योंकि उनके बच्चे उन्हेंकूल एंड माचो देखना चाहते हैं। फिल्मों में नायक की मर्दाना छवि का पुनरागमन  हुआ है। बॉलीवुड के नायकों में एक गुस्सैल और मर्दाना छवि को फिर से गढ़ा जा रहा है। पिछले साल रिकॉर्ड कमाई करने वाली दबंग और वाँटेड में सलमान खान अपना यह रूप दिखा चुके हैं तो गजनी में आमिर खान ने दर्शकों को खूब लुभाया था। मतलब बॉलीवुड का रुख अब एक्शन की ओर है।  एक्शन से भरपूर इन फिल्मों के हीरो ठीक सत्तर के दशक के हीरो की तरह एक खास छवि में दिख रहे हैं जसा कि जंजीर, दीवार या शोले में हम देख चुके हैं। हालांकि, उस दौर का एंग्री यंग मैन एक अवधारणा के तहत गढ़ा गया ऐसा चरित्र है जो जॉन ऑस्बॉर्न के नाटक लुक बैक इन एंगर (1956) के जिमी पोर्टर से प्रेरित था। वह एक अस्थिर समाज के गढ़ा गया ऐसा चरित्र था जो गरीब जनता की मदद करने के लिए ही जन्म लेता है। वह आपातकाल का सामना कर रहा एक ऐसा समाज था जिसे अपना नायक चाहिए था और लोग उसकी छवि अमिताभ बच्चन अभिनीत किरदारों में देख रहे थे। अमिताभ के परदे पर आते ही थियेटर में बैठे दर्शकों के बीच से तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठती थी। लेकिन इस वक्त रही इन फिल्मों का ऐसा कोई उद्देश्य नहीं है। वे कोरी मसाला फिल्में हैं जो बस दर्शकों को रोमांचित करने के उद्देश्य से बनायी जा रही हैं। आज का दर्शक मल्टीप्लेक्स में पैसे खर्चने को तैयार है और भरपूर रोमांच चाहता है। नये फिल्मकार भी इस बात को समझते हैं और दर्शकों की इस रोमांच की इच्छा को भुनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते।
बॉलीवुड का फोकस आजकल युवाओं की ओर है और युवाओं का मिजाज हमेशा बदलता रहता है। आज का युवा सामाजिक ऊहापोह को अपने ढंग से देखता है। वह 70 के दशक वाली स्थिति में नहीं है और आंदोलनों में वैसा विश्वास नहीं करता। हालांकि, वह परिवर्तनों के लिए अलग ढंग से विचार करना चाहता है। हो सकता है यह आज की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थिति के कारण हो। क्लासिक रोमांस पर वह हंसता है। इसलिए या तो कॉमेडी फिल्में बन रहीं हैं या फिर एक्शन फिल्में।
एक्शन के लौटने से मतलब यह नहीं है कि बीच में ऐसी फिल्में नहीं बन रहीं थीं लेकिन फिलहाल जिस तरह से सभी बड़े कलाकार एक्शन फिल्में कर रहे हैं, वह एक नया प्रयोग है।