Wednesday, June 15, 2011

जनांदोलनों के बरक्स नया मीडिया



आजकल आप अपना फेसबुक या ट्विटर का अकाउंट खोलते ही देखते होंगे कि अन्ना हजारे या बाबा रामदेव पर कोई चर्चा चल रही है। अन्ना हजारे के आंदोलन में जितने लोगों ने सड़क पर उतर कर प्रत्यक्ष भागीदारी की, उससे कहीं अधिक लोगों ने सोशल नेटवर्किंग साइट- फेसबुक और ट्विटर पर बहस-मुबाहसा और समर्थन किया। पिछले कुछ महीनों में यह देखने को मिला कि सोशल नेटवर्किंग साइटों पर लोग अन्ना हजारे का समर्थन कर रहे हैं तो सरकार की निंदा कर रहे हैं। बाबा रामदेव को लोग अगंभीर कह रहे हैं तो उनकी अनशन सभा पर सरकार की पुलिसिया कार्रवाई को गलत करार दे रहे हैं। उधर, सिविल सोसाइटी के लोगों द्वारा चलाया जा रहाइंडिया अगेंस्ट करप्शनज् का नारा इंटरनेट के जरिये हर किसी को जोड़ रहा है। अन्ना के अनशन के समर्थन में एक एसएमएस के जवाब में मिस्ड कॉल देकर कई लाख लोगों ने अपना रजिस्ट्रेशन करवाया जिसे एक सफल अभियान के तौर पर देखा जा रहा है। यह निश्चित ही एक ऐतिहासिक परिघटना है। मीडिया का ऐसा स्वरूप पहली बार सामने आया कि लोग अपने-अपने घरों से निकले बिना भी एक माहौल बना सकने में अपनी भूमिका अदा कर रहे हैं। क्या यही कारण है कि पिछले कुछ सालों से जो मीडिया आंदोलन जसी चीजों को कवर करने से बचता था अब वह प्रमुखता से आंदोलनों को जगह दे रहा है? क्या सोशल मीडिया पर लोगों की सक्रियता को देखते हुए मीडिया ऐसा कर रहा है, क्योंकि मुद्दों को नजरअंदाज करना अब उस तरह से संभव नहीं रह गया है?
भारत में यह सब ठीक तब हो रहा है जब अरब जगत में क्रांति की आंच अभी ताजा है। मिस्र की क्रांति हवा देने में तमाम स्थितियों के साथ-साथ सोशल मीडिया ने भी अहम भूमिका निभायी। पुलिस ने खालिद सईद नाम के एक व्यवसायी को पीटकर मार डाला तोवी ऑल आर खालिद सईदज् नाम से फेसबुक पर एक ग्रुप बन गया। इस ग्रुप ने उल्लेखनीय ढंग से लोगों का ध्यान खींचा और जल्दी ही चार लाख लोग इसके फॉलोवर हो गये। वील गॉनिम नाम के व्यक्ति ने 25 जनवरी को यह पेज बनाया गया और 28 जनवरी को गॉनिम को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 12 दिन बाद रिहा किया गया। गौरतलब है कि गॉनिम की रिहाई के बाद ट्विटर पर उन्होंने एकाउंट बनाया जिसके बड़ी संख्या में फालोवर बने। उस एकाउंट पर वे दिन--दिन मिस्र के घटनाक्रम का ब्यौरा पेश कर रहे थे।
उधर, फेसबुक पर आसमा महफूज नाम की महिला ने लोगों से तहरीर चौक पर एकत्र होने और प्रदर्शन करने की अपील की। आसमा को फेसबुक पर खासा समर्थन तो मिला ही, इस फेसबुकिया अभियान ने लोगों को तहरीर चौक पर एकत्र होने के लिए प्रेरित किया। ये दोनों घटनाएं दुनियां भर में चर्चित हुईं। काहिरा में जिस समय प्रदर्शन हो रहे थे, एक एक्टिविस्ट ने ट्विटर पर लिखा-‘हम फेसबुक का इस्तेमाल विरोध-प्रदर्शन की रूपरेखा तैयार करने के लिए, ट्विटर का सहयोग के लिए और यू-ट्यूब का इस्तेमाल दुनिया को बताने के लिए करते हैं।ज् ये आम नागरिक थे जो अपने-अपने तरह की राजनीतिक भूमिकाओं में उतरे। यहां इंटरनेट के जरिए सोशल नेटवर्किंग को एक अलग मायने मिले, जहां अक्सर फिजूल सा लगने वाला काम एक सरोकार से जुड़ गया और लोगों की उसमें अधिकाधिक भागीदारी ने एक क्रांति की सफलता को सुनिश्चित  किया। अरब जगत की हालिया क्रांति से लेकर जंतर-मंतर के आंदोलन तक से जो राजनीतिक-सामाजिक बदलाव हुए, उससे इतर खुद मीडिया ने भी एक उपलब्धि हासिल की है। अब मास मीडिया में आम जन की अधिकतम भागीदारी का रास्ता खुल गया है।
विचारक मार्शल मैक्लूहान ने टेलीविजन को बीसवीं सदी की सबसे महान उपलब्धि कहा था। उसमें इंटरनेट का अध्याय जुड़ जाने के बाद उन्होंने ग्लोबल विलेज की परिकल्पना प्रस्तुत की थी, कि आने वाले समय मेंदूरियां मिट जाएंगीज् और पूरी दुनिया एक गांव में तब्दील हो जाएगी। जसे-जसे नया मीडिया अपने नये-नये रूपों में नुमायां हो रहा है, वैसे-वैसे मार्शल मैक्लूहान की ग्लोबल विलेज की वह भविष्यवाणी और प्रासंगिक होती जाती है। इंटरनेट लगातार लोगों को तरह-तरह के अवसर उपलब्ध करा है जिसे मुख्यधारा के मीडिया के विकल्प के तौर पर भी देखा जा सकता है।
गनीमत है कि अब इंटरनेट पर उपलब्ध सोशल नेटवर्किंग आदि सेवाएं कोई ऐसी चीज नहीं हैं जिन्हें केवल कुछ चुनिंदा देशों में इस्तेमाल किया जाये। न्यू मीडिया की शायद सबसे बड़ी खासियत यही है कि इसका लोकतंत्रीकरण हुआ है। चाहे वह खबर पैदा करने की बात हो, खबरों के प्रकाशन की बात हो, या फिर उन पर खुलकर चर्चा करने की बात हो। उसमें आमजन की भागीदारी बढ़ी है और उसका वैशिष्ट्य खत्म हुआ है। कम से कम वह तबका, इंटरनेट जिसकी जद में चुका है, उसे इसमें हिस्सा लेने से अब रोका नहीं जा सकता।  चूंकि, सोशल मीडिया में पेशेवर लोगों की अपेक्षा आम लोगों की भागीदारी होती है, इसलिए कोई उनकी भाषा या स्तरीयता पर चर्चा कर सकता है। जहां तक भाषा और अंतर्वस्तु को लेकर संयम की बात है, तो इसका मुख्य धारा की मीडिया में भी सर्वथा अभाव है और उस पर सरकारी अथवा गैर-सरकारी नियंत्रण की चर्चा भी गाहे--गाहे होती रहती है। सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों पर किसी तरह का व्यावसायिक दबाव नहीं होता इसलिए ब्लॉग लेखक ज्यादा साहस दिखा सकता है। जिस राडिया टेप से मुख्य धारा का मीडिया दो साल तक लुका-छुपी खेलता रहा, उसी टेप को कुछ एक ब्लॉगरों ने हाथ आते ही सिर्फ जारी किया, बल्कि उस पर जोरदार ढंग से चर्चा करायी।
कुछ लोग सोशल मीडिया के इस असीमित स्पेस को एक विकल्प के तौर पर देखते हैं जो सत्ता-समर्थक या कारपोरेट हितों के लिए काम करने वाले मीडिया संस्थानों के लिए एक चुनौती बन सकता है। लेकिन, फिलहाल यह संभावना उतनी मजबूत नहीं दिखती क्योंकि बिना संस्थानीकरण के सोशल मीडिया तो वैश्विक घरानों के बरक्स खड़ा हो सकता है और न ही लोकतंत्र की दिशा में कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल कर सकता है। सोशल मीडिया को वैकल्पिक मीडिया में तब्दील करने की कल्पना भले ही एक उम्मीद जगाती हो, लेकिन अभी तक यह मूर्तरूप नहीं ले पाई है। हाल ही में मुंबई में प्रख्यात पत्रकार ज्योतिर्मय डे की हत्या हुई तो सोशल नेटवर्किंग साइटों पर जबर्दस्त प्रतिक्रिया देखने को मिली। इस तरह से ऑन लाइन एक दबाव-समूह तैयार होता है जो किसी भी तरह की राय बनाने या मुद्दों को हवा देने का काम करता है।
इंटरनेट के प्रसार ने कुछ ही वर्षो में हमें अपार संभावनाएं दी हैं। जहां जुलियन असांजे अपनाहैक्टिविज्मज् चला सकते हैं तो आम आदमी भी उसमें भागीदार हो सकता है। कौन जाने कल को नया मीडिया किस भूमिका में होगा?

Monday, June 13, 2011

विज्ञान के सहारे फैलता अंधविश्वास

कई छोटे-बड़े चैनलों ने करीब एक साल से ऐसे उपकरणों का प्रचार करना शुरू किया है जो दुनिया की सभी समस्याओं को हल कर सकते हैं। ये उपकरण प्यार में धोखा खाये, परीक्षा में फेल हुए, धंधे में घाटा उठाये, दुश्मनों से मात खाये और जीवनसाथी के इमोशनल अत्याचार से परेशान लोगों के लिए ब्रहमास्त्र का काम करते हैं। चैनलों के मुताबिक ऐसी समस्याओं का कारण बुरी नजरें और उपरी हवाएं हैं। अगर आपका बच्चा ज्यादा रोता हो, घर में एक साथ कई लोगों का सर दर्द करता हो या घर के लोग बीमार रहते हों, बच्चा पढ़ता हो और पास न होता हो तो इसका मतलब है कि आप पर किसी की बुरी नजर है। इस बुरी नजर से बचने का उपाय चैनलों के पास नजर रक्षा कवच, शिवशक्ति रक्षा कवच, जीवन रक्षा कवच, शनि रक्षा कवच के रूप में मौजूद है। इनके प्रचार में चैनलों ने एक पूरी टीम लगायी है। एंकर इनकी खूबियां गिनाता है फिर इन बातों की विश्वसनीयता के लिए ज्योतिषाचार्य को पेश करता है। नागरिकों को इससे फायदा भी हो रहा है, यह दर्शाने के लिए कई गृहस्थ और गृहणियों को पेश किया जाता है जो यह बताते हैं कि हमने कवच धारण किया और चमत्कार हो गया । इनकी बिक्री के लिए देश के सभी शहरों में और विदेशों में भी ऐजेंट हैं जो आपको ये कवच उपलब्ध करा सकते हैं। प्रति कवच की कीमत मात्र 2400 से 5000 रू0 के बीच है।
इनका महात्म्य बताने के क्रम में भागम-भाग जिंदगी की रोजमर्रा की समस्याओं को शनि देव की नाराजगी से जोड़कर एंकर कहता है कि शनि देव की नाराजगी का मतलब है विनाश। अगर आप यह कवच धारण करते हैं तो शनि देव खुश होंगे और आपका कल्याण होगा। वांछित फल की प्राप्ति होगी।
गौरतलब है कि नये परिवेश की समस्याओं और अनिश्चितताओं को कथित बाबाओं और पंडितों ने भांप लिया है। मध्यवर्गीय समस्याओं को शनि आदि का प्रकोप बताकर लोगों में भय पैदा किया जा रहा है। यह भय ही अंधविश्वास का बाजार खड़ा करता है। यह साधारण सा बालसुलभ सवाल है कि अगर कोई देवता इतना शक्तिशाली और कल्याणकारी है तो वह लोगों में इस कदर आतंक क्यों फैलाता है? और भी, अगर हम चार हजार रूपये ज्योतिषी को देकर रक्षाकवच पहन लेंगे तो उस देवता को क्या मिलेगा? जाहिर है यह पोंगापंथी-षडयन्त्र है जो ऐसे आधार पर रचा जाता है जिसका किसी तरह का कोई प्रमाण ही नहीं है।
इस कवच-व्यवसाय का देश-विदेशांे में नेटवर्क होना ही इस बात का प्रमाण है कि यह विशुद्ध व्यवसायिक आयोजन है जो अंधविश्वास पर धर्म का मुलम्मा चढ़ाकर चलाया जाता है। टीवी, जिसके विकास को मार्शल मैकलूहान ने 20वीं सदी की वास्तविक क्रान्ति कहा था, का भी प्रयोग इस व्यवसाय में होने लगा है। बाबाओं ने देर से सही टीवी की ताकत को पहचान लिया है। आखिर टीवी बाजार का सबसे प्रभावशाली वाहक और प्रेरक है जिसकी पंहुच उस मध्यवर्ग तक है जो बाजार की नियामक शक्ति है। इस वर्ग मंे धर्मभीरूता को भुनाकर अच्छा लाभ कमाया जा सकता है।
विज्ञान के विकास के साथ यह धारणा बननी शुरू हुई कि जैसे-जैसे समाज आगे बढ़ेगा वह अंधविश्वासों से उबरकर तार्किक होता जायेगा। मगर टीवी, जो विज्ञान के उत्क्रष्टतम अविष्कारों में से एक है, का इस्तेमाल अंधविश्वास को और पुख्ता करने में किया जा रहा है। बीती सदियों में सुधार आन्दोलनो के जरिये कर्मकाण्ड और पोंगापंथी को लेकर को आवाजें भी उठायीं गयीं लेकिन वे बेहद क्षीण साबित हुईं। इसके बरक्स इन्हें फैलाने वाले ज्यादा सक्रिय रहे क्यांेकि यह उनकी रोजी-रोटी का सवाल है। दुखद तो यह है कि आम आदमी पढ़ा लिखा होकर भी इन बातों पर विश्वास कर लेता है और भयभीत हो जाता है। वह अपनी रोजमर्रा की समस्याओं को शनि और शिव के प्रकोप के तौर पर देखता है। अंधविश्वास अब समय के हिसाब से अपने को बदलकर नये स्वरूप में नुमाया हो रहा है।
कहने की जरूरत नहीं कि टीवी ऐसा माध्यम है जिसके सहारे कूड़ा भी मंहगे दामों में बेचा जा सकता है। वह आज हमारी दिनचर्या निर्धारित कर रहा है। टीवी का अपना सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव है। वह अगर नागरिकों को उपभोक्ता में बदल सकता है तो उन्हें खांटी किस्म का पोंगापंथी भी बना सकता है। यह टीवी और फिल्मों का ही प्रभाव है कि पिछली सदी में कई लोग सन्त से देवता में तब्दील होकर पूजे जाने लगे। धर्म के नाम पर चलने वाले चैनल भी अंधविश्वास और व्यक्तिपूजा को ही बढ़ावा देते हैं। इसी के चलते यह स्थिति बन रही है कि पांच रूपये की ताबीज बनाने वाला बाबा अब पांच हजार की ताबीज बनायेगा। बड़े चैनलों द्वारा ऐसी निराधार और अवैज्ञानिक बातों का प्रसार मीडिया का चरित्र दर्शाता है। इस वैज्ञानिक युग में वैज्ञानिक उपकरणों की मदद से अंधविश्वास का प्रसार बेहद चिंताजनक है।