Sunday, June 12, 2011

मीडिया में जनांदोलनों की जगह

मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता अरविन्द केजरीवाल का कहना है कि मीडिया, खासकर खबरिया चैनलों में, ख़बरों का चयन असंवेदनशील ढंग से किया जाता है. अन्ना हजारे के अनशन कि खबर आज टीवी चैनलों में जगह नहीं पाती. उनका कहना है कि आज के हालात में तटस्थ रहने गुंजाइश नहीं है. आपको अपना पक्ष तय करना पड़ेगा. केजरीवाल जो चिंताएं 
जता रहे हैं क्या वाकई यह चिंता का विषय है ? अगर हाँ, तो ऐसी स्थिति क्यों है? मेरे ख्याल से ज्यादातर लोगों को इसका जवाब मालूम है. जनमाध्यमों और पत्रकरों का पक्ष पहले से तय है. वे उस पक्ष में नहीं हैं जिधर अन्ना हजारे या अरविन्द केजरीवाल हैं. वे उस पक्ष में नहीं हैं जिधर अमित जेठवा थे. हाँ, इसके अपवाद भी ज़रूर हैं. मीडिया में ऐसे लोग भी बेशक हैं जो अन्ना हजारे या केजरीवाल जैसा सोच सकते हैं. मगर वे नौकरी के खूंटे से बंधे हैं, और अपनी गुलामी के उत्सव को सेलिब्रेट कर रहे हैं. 
हो सकता है मेरा ये कहना किसी को बुरा लगे, मगर यदि किसी भी वजह से आप हमेशा सही को सही नहीं कह सकते, गलत को गलत नहीं कह सकते, तो आप स्वतंत्र कहाँ हैं? 
अन्ना हजारे के बोलने और वरिष्ठ पत्रकारों के चुप रहने का फर्क, उनकी प्राथमिकताओं का फर्क है. हर पत्रकार यह जानता है कि वह किसी न किसी पूंजीपति अथवा नेता के लिए काम कर रहा है. ऐसे में अन्ना हजारे का पक्ष उसके मालिक के हितों के खिलाफ है. वह ऐसा कभी नहीं करेगा. 
इसके लिए अदम्य साहस कि ज़रूरत होती है, जो आज कहीं नहीं दिखती. क्या यह आश्चर्य नहीं कि पूरी हिंदी पत्रकारिता में कोई ऐसा चेहरा, कोई आवाज़ नहीं है जिस पर हम संतोष जता सकें. हर किसी कि ज़बान पर एक बेहूदा तर्क है कि यह समय कि नजाकत है.
 रोज़ी-रोज़गार के वृहद् तर्क को नाकारा नहीं जा सकता, पर तात्कालिक लाभ कि हमें भरी कीमत चुकानी पद सकती है. बोलने कि सीमायें तय हो रही हैं और इसके दूरगामी परिणाम बेहद भयावह हैं. हमें यह तय करना होगा कि हमारी स्वतंत्रता ज्यादा महत्व कि है या फिर रोज़गार. रोज़गार तात्कालिक राहत ज़रूर देता है, लेकिन गुलामी कि कीमत सदियों को चुकानी पड़ती हैं. छोटे-छोटे पूंजीपतियों के छोटे- छोटे हित उन सार्वभौमिक मूल्यों से बड़े नहीं हो सकते. उनके लगातार  दरकिनार किये जाने का ही परिणाम है कि हम एक के बाद महाघोटालों के मूक दर्शक बने हुए हैं. 
 क्या मीडिया इन बातों को नहीं समझता? बखूबी समझता है. बस वह चुप रहकर उन बातों को समर्थन देता है जो उसे फायदा पहुंचाती हैं. मीडिया के मुनाफे का सारा गणित  कार्पोरेट ही तय करता है, जिसके विरोध में अन्ना हजारे या मेधा पाटेकर उतरते हैं. इसलिए मीडिया अगर उनका सहयोग नहीं करता, तो विरोध नहीं करेगा. जिस पूंजीपति के पैसे से चैनल चलता है, वह उसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष विरोध कभी नहीं करेगा. इसलिए फिलहाल तो अरविन्द केजरीवाल और उनकी तरह मीडिया से उम्मीद करने वालों को  निराशा ही हाथ लगेगी. कार्पोरेट संचलित मीडिया कार्पोरेट के ही विरोध में नहीं खड़ा हो सकता, इसलिए वह जनांदोलनों के साथ नहीं खड़ा होगा. और जहाँ तक अपना पक्ष तय करने कि बात है, तो मीडिया का पक्ष तय है. उसका लक्ष्य मुनाफे से परे नहीं है, भले ही उसे नाग-नागिन, भूत-प्रेतों के किस्सों का सहारा लेना पड़े.

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